
वरिष्ठ पत्रकार गुणानंद जखमोला की कलम से धरातल की सच्चाई
रेस्क्यू की तैयारी, आपदा प्रबंधन लापता
,पिछले 10 वर्षों में आपदा में 3500 से भी अधिक लोगों की मौत,प्रदेश में आपदा से बचने की कोई नीति नहीं, आपदा में अवसर की तलाश
वर्ष 2013 की केदारनाथ आपदा में सरकारी आंकड़ों के मुताबिक लगभग 5700 लोग मारे गये थे। वैसे तो यह आंकड़ा कई अधिक था। खैर, अब बात 2014 से अब तक प्रदेश में आई आपदाओं में अब तक 3500 से भी अधिक लोगों की मौत हो चुकी है। लेकिन सब मौन हैं। आपदाएं आती हैं और सरकारें रेस्क्यू में जुट जाती हैं। डिजास्टर टूरिज्म होता है। पीपली लाइव जैसा सीन होता है। वाडिया, आईआईटी, सीबीआरआई और न जाने कौन कौन से एक्सपर्ट रिपोर्ट देते हैं। जियोलॉजिस्ट की तलाश होती है। केंद्र के आगे मदद का कटोरा फैलाया जाता है। कुछ लोग अपनी नेक कमाई तो कुछ बेईमानी में से कुछ हिस्सा आपदा प्रभावितों को देते हैं। कुछ आपदा में अवसर तलाशते हैं लेकिन हिमालय को बचाने के लिए कोई ठोस नीति नहीं बनती।
ये जो मैं आंकड़े दे रहा हूं। भयावह हैं। ये आंकड़े विभिन्न स्रोतों से एकत्रित हैं। सरकार भी जांच करे, यदि आंकड़े सही हैं तो आपदा से बचाव के लिए कारगर नीति बननी चाहिए। वरना ये प्रदेश नेताओं और नौकरशाहों की जेब भरने का काम करेगा। आपदा में अवसर ही तलाशे जाएंगे समाधान नहीं।
प्रदेश में पिछले एक दशक में आपदा में 3554 लोगों की मौत हुई। 5948 लोग घायल हुए हैं। अपार संपत्ति की हानि हुई है। प्रदेश में पिछले 10 साल में 18 हजार से अधिक आपदाएं आई हैं। बाढ़ की 12 हजार से भी अधिक घटनाएं हैं। 4500 से भी अधिक भूस्खलन के मामले हैं। 67 बादल फटने और हिमस्खलन की 92 घटनाएं हैं। ये डाटा भी मैं कुछ कम कर दे रहा हूं। वास्तविक आंकड़े अधिक हो सकते हैं।
दरअसल, उत्तराखंड को लेकर समग्र नीति बनी ही नहीं है। सरकारें आती -जाती रहीं और हिमालय की चिन्ता किसी को नहीं। सबने आपदा में अवसर तलाशे हैं। हिमालय का दोहन होना चाहिए था, लेकिन नेताओं और नौकरशाहों ने इसका शोषण किया। प्रकृति प्रतिकार कर रही है। यदि हिमालय और पहाड़ बचाने के लिए कोई ठोस नीति नहीं बनती तो फिर हर साल प्रदेश को इसी तरह की आपदाओं को झेलने के लिए विवश होना पड़ेगा।